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Thursday, November 26, 2015

Sesame Production / तिल उत्पादन




“तिल उत्पादन”
किसान भाइयों ! किसान संचार जीरकपुर निकट चंडीगढ़ के सौजन्य से आज हम आपको तिल की खेती के बारे में जानकारी दे रहे हैं | आप यह तो शायद जानते ही होंगे कि तिल विश्व की सबसे प्राचीन तिलहन फसल है जो भारत में भी सर्दियों से उगायी जा रही है | यहाँ तक कि इसका हमारी धार्मिक मान्यताओं में भी विशेषस्थान है | तिल के सर्वाधिक उत्पादन का श्रेय भी भारत को ही जाता है |
    साथियों तिल में तेल की मात्रा 46 से 52 प्रतिशत होती है | इसके तेल    में      प्रोटीन   20 - 26 प्रतिशत   यह तेल खाने,दवाइयों,सुंगधित सौन्दर्य प्रसाधन बनाने के लिए मुख्य रूप से प्रयोग किया जाता है तिल का दाना विभिन्न प्रकार की मिठाइयों में भी प्रयोग होता है | तिल की खली भी प्रोटीन,काबोहाइड्रेटस  और खनिज लवणों से भरपूर रहती है | इसी कारण मेहनतकश लोग इसे बड़े चाव से खाते है | इसकी खली दुधारू पशुओं के लिए भी बहुत पोष्टिक रहती है | तिल के तेल के लिनोलिक,ओलिक,पालमिटिक और स्टीरिक अम्ल मुख्य भाग है भोजन में तिल का तेल बोने से हमारे शरीर में पापरेथिन तथा रोटेनन जैसे कीट नाशियों के दुष्य भावों के लिए प्रतिरोधी क्षमता बढ़ती है | हमारा देश तिल का निर्यात करके विदेशी मुद्रा भी कमाता है |
      साथियों ! पश्चिम बंगाल तिल का मुख्य उत्पादक प्रदेश है इसके अलावा गुजरात महाराष्ट्र,मध्यप्रदेश कर्नाटक राजस्थान व तामिलनाडु में इसकी खेती की जाती है | अधिक उत्पादन देने वाली किस्मों के आने,उत्पादन तकनीक का विकास होने,तिल की बढ़ती मांग और अच्छा मूल्य मिलने रहने के कारण वर्षा आधारित व कम सिंचित क्षेत्रों में इसकी खेती करना आज लाभ का सौदा है |
 जलवायु व मिटटी :-
 समुद्र तल से 1200 मीटर की ऊंचाई वाले मैदानों की वलुई दोमट तथा भारी काली मिटटी में भी इसे आसानी से  उगाया जा सकता है | मुख्य रूप से तिल को हल्की भूमियों में उगाया जा रहा है | महाराष्ट्र उड़ीसा,गुजरात, और  मध्यप्रदेश में रबी व खरीफ दोनों फसलों में टिल बोया जाता है | जबकि पश्चिम बंगाल,बिहार,उड़ीसा आदि के कुछ  भागों में पछेते धान व आलू के बाद इसकी ग्रीष्म कालीन फसल बोयी जाती हैं |
 उन्नत किस्में :-
 दिनों की लम्बाई तथा तापमान तिल उत्पादन को अधिक प्रभावित करता है | इन दोनों अवस्थाओं का तिल की  फसल पर प्रतिकूल प्रभाव न पड़े इसी को ध्यान में रखते हुए प्रदेश किस्मों का चयन किया गया है जो इस प्रकार है |
 1.पश्चिम बंगाल के लिए:- रामा,B-67,अमित और SWB-32-10
 2.उत्तर प्रदेश :- T-4,T-12,T-13,T-78,MT-75,RT 46 और SWB.32-10
 3.राजस्थान :- प्रताप,RT-46,RT-54,RT-125,RT-103और RT-127
 4.उड़ीसा:-   T-85,बिनायक,कनक,कलिका,उमा,उषा निरमला,प्राची और अमित
 5.महाराष्ट्र :- फुले टिल-1,N-8 Tapi,JLT-26 AKT-64 और AKT-101
 6.मध्यप्रदेश :-N-32, JT-7,JT-21TKG-22,TKG-55,JTS-8  और RT-46
 7.हरियाणा :- हरियाणा टिल -1,RT-46 तथा हरियाणा टिल-2
 8.पंजाब :- TC-25,Punja til no-1 और TC 289 बीज
 9.बिहार :- कृष्णा.B-63,कनके सफ़ेद,अमित और SWB-32-10
10.गुजरात :- परवा-1,गुजरात तिल-1,गुजरात तिल-2 तथा गुजरात तिल-10
 बीज की मात्रा :-
  सामान्य तौर से किसान तिल को बिखेर कर लेते हैं | किन्तु खरपतवारों की रोकथाम,निराई-गुड़ाई की सुविधा और अधिक उत्पादन सुनिश्चित करने हेतु तिल की बुवाई लाइनों में की जानी चाहिए | लाइनों में बोने पर 2 किलोग्राम बीज प्रति एकड़ पर्याप्त रहता है | अच्छी उपज के लिए बीज को पोरा या ड्रिल की सहायता से लाइन से लाइन के बीज 30 सेटीमीटर तथा पौधे से पौधे के बीज 15 सेटीमीटर के फांसले पर बोयें | बीज की गहराई 4 से 5 सेटीमीटर रखें | बीज को 1 पैकेट एजो स्थाइरिलम टिके से उपचारित करें |  
खेत की तैयारी :- पर्याप्त नमी रहते 10 टन गोबर की खाद प्रति एकड़ डालकर 2 या 3 जुताई व पाटा करके जमीन    तैयार करें | कम उपजाऊ व हल्की मिटटी में 30 किलोग्राम यूरिया तथा गन्धक की पूर्ति क लिए 50 किलोग्राम      सिंगल सुपर फास्फेट प्रति एकड़ बुवाई के समय डालना चाहिए |
सिंचाई :-
  खरीफ की फसल को सिंचाई की तभी जरूरत पडती है जब सूखे की अवधि लम्बी हो किन्तु रबी व ग्रीष्म कालीन फसल में मिटटी मे उपस्थित नमी को ध्यान में रखकर बुवाई के बाद सिंचाई करें | फिर 12 से 15 दिन के अंतर से मौसम को ध्यान में रखते हुए सिंचाई करनी चाहिए |
निराई गुड़ाई :-
  बोने से 15 दिन बाद पहली,1 महीना बाद दूसरी तथा बाद में आवश्यकतानुसार निराई गुड़ाई करके खरपतवार निकालते रहना चाहिए |
तिल की कटाई :-
  जब तिल के पीले पड़ने लगे तो समझे तिल की अब फसल पक गयी है तब फसल की कटाई करके उसके वण्डल बना लें तथा इन बंडलों को बांधकर सीधे खड़े करके सुखायें | सूखने पर इन्हें उल्टा करके दो बार डंडे आदि से झटक कर दाना निकाले तथा साफ करके हाइट्रोजन सापनाईड से उपचारित करके भंडार में रखें |
हानिकारक कीड़ें :-
 1.पत्ती लपेट तथा फली वेधक सुंडी :- शुरू में ये सुंडियां पत्तों को लपेट कर खाती हैं | जिसमें पत्ते गिर जाते हैं | तथा बाद में सुंडियां फलियों में छेद करके उन्हें अन्दर ही अन्दर खा जाती है | इनकी रोकथाम के लिए 600,650 तथा 725 ग्राम कार्बेरिल 50 घुलनशील पाउडर को क्रमश : 200,220 तथा 240 लीटर पानी में घोलकर बोने से 25,40 व 55 दिन के अन्तराल पर प्रति एकड़ फसल पर छिड़काव करें |
 2.हरा तेल :- यह कीट पत्तियों से रस चूसता है साथ ही फिलौडी रोग भी फैलाता है जिसमें फलियों के स्थान पर हरी पत्तियों के गुच्छे बन जाते हैं | इसकी रोकथाम के लिए 200 मिलीलीटर मैलाथियान 50 ई.सी को 200 लीटर पानी में घोलकर प्रति एकड़ छिड़काव तीन सप्ताह के अंतर से दो बार करें |
रोगों की रोकथाम :-
 1.फिलौडी :- इस बीमारी के कारन फलियाँ बनने की बजाय इनके स्थान पर पत्तियों के गुच्छे बनते है | इससे बचाव   के लिए हरे तेला प्रकोप न बढ़ने दें | प्रारम्भिक प्रभावित पौधों को उखाड़ कर नष्ट कर दे तथा अगेती  बुवाई न करें |
 2.झुलसा रोग:- यह रोग फंफूदी के कारण होता है | पत्तों तथा फलियों पर गहरे भूरे रंग के दाग पड  जाते है | और  पत्ते झुलस जाते हैं | इसके नियंत्रण हेतु 800 ग्राम मैन्कोजेब को 250 लीटर पानी में घोलकर  प्रति एकड़ छिड़काव   करना चाहिए |
 3.जड़ व तना गलन रोग:- फसल पकते समय अक्सर यह रोग लगता है |  इसमें जड़ें गल जाती है और तना काला पड़ जाता है फल स्वरूप पौधे मर जाते हैं | यह रोग न लगे इसके लिए तिल है फल स्वरूप पौधे मर जाते हैं  यह रोग न लगे इसके लिए टिल के प्रति किलो बीज को ३ ग्राम थीरम से उपचारित करना चाहिए |
पैदावार :-
  असिंचित क्षेतों में शुद्ध फसल से 3 से 4 कुवंटल तथा सिंचित क्षेतों में 4 से 5 कुवंटल प्रति एकड़ पैदावार मिल जाती    है | 

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