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Wednesday, November 25, 2015

चने की खेती / Gram Cultivation



चना की खेती
असिंचित भूमि में चने की बुवाई अक्टूबर के दूसरे पखवाड़े से तथा सिंचित भूमि में अक्टूबर के अन्तिम सप्ताह से लेकर नवम्बर माह के मध्य तक पूरी कर लें | चने की हरी पत्तियां व तने साग के रूप में,चने के हरे दाने सब्जी के रूप में,सूखे दाने वेसन,दाल तथा आटा के लिए प्रयोग किये जाते हैं | चने का पौधा बहुत स्वादिष्ट होता है इसलिए चने के भूसे को अन्य चारा में मिलाकर खिलाया जाता है |  चना एक शरद कालीन फसल है | इसकी बढ़वार व विकास के लिए 15 से  25 डिग्री सेल्सियस तक का तामपान उत्तम रहता है किन्तु फूल बनते समय अधिक    सर्दी   व  पाला उत्पादन को कम कर देता है | चना मुख्य रूप से मध्यम उपजाऊ,असिंचित रेतीली दोमट से भारी दोमट भूमि जिनमें जल निकास का उचित प्रबंध हो में उगाया जाता रहा है | सिंचित अवस्था में चना की फसल अच्छी पैदावार देती है | मध्य,उत्तर पूर्व व पश्चिमोत्तर भारत के मैदानी क्षेत्रों की कम सिंचाई सुविधा वाली भूमियों में चने की खेती की जाती है |
इन क्षेत्रों के लिए चने की उन्नत किस्में हैं |
1.    सी-235 :- तराई व सिंचित क्षेत्रों के लिए उत्तम है यह अंगमारी रोग के प्रति सहनशील है किन्तु उखेड़ा रोग लगता है | इसकी औसत उपज 8 कुवंटल प्रति एकड़ है इसके दाने भूरे-पीले रंग के होते है |
2.    हरियाणा चना न 1:- यह असिंचित,सिंचित व पछेती बुवाई के लिए अच्छी है इसके पौधे बौने,हल्के हरे तने शुरुआती शाखायें लम्बी व शेष छोटी होती हैं | फसल अगेती पकती है दाने सुंदर व पीले होते है | यह उखेड़ा रोग के प्रति सहनशील है इसमें फली छेदक सुंडी कम लगती है औसत उपज 8-10 कुवंटल प्रति एकड़ है |
3.    हरियाणा चना न 3:- केवल सिचित क्षेत्रों में नवम्बर के प्रथम सप्ताह में बोनी चाहिए | इसके पौधे ऊँचें मामूली फैलाव लिए सीधे बढ़ने वाले,पत्तियां चौड़ी व गहरे हरे रंग की होती हैं | इसके दाने मोटे,भूरे-पीले व आकर्षक होते हैं औसत उपज 8-10 कुवंटल प्रति एकड़ देती है | यह किस्म उखेड़ा,जड़ गलन व अंगमारी के प्रति अवरोधी है |
4.    हरियाणा चना न 5:- यह सिंचित क्षेत्रों के लिए उपयुक्त है | इसके पौधे लम्बे,सीधे व कम फैलाव वाले होते है | पत्तियां चौड़ी व गहरे हरे रंग की होती हैं |  दाना मध्यम,भूरा-पीला व आकर्षक होता है | यह उखेड़ा व जड़गलन रोधी किस्म है जो 8.5 से 10 कुवंटल प्रति एकड़ औसत उपज देती है  |
5.    हरियाणा काबली न 1:- यह किस्म सिंचित क्षेत्रों के लिए है पौधे फैलाव वाले अधिक शाखाओं वाले होते हैं दाने मध्यम आकार के ,गुलाबी सफ़ेद होते हैं | अन्य काबली किस्मों से कम उखेड़ा लगता है | इसकी औसत पैदावार 8 से 10 कुवंटल प्रति एकड़ है |
6.    हरियाणा काबली न 2:- इस किस्म के पौधे बढ़वार में कम सीधे,हल्के हरे पत्तों वाले होते हैं दाने सफ़ेद व मोटे होते है यह किस्म चने की मुख्य बीमारियों की रोग रोधी किस्म है तथा औसत पैदावार 7 से 8 कुवंटल प्रति एकड़ देती है |
7.    पूसा-362 :- इसके दाने सख्त व भूरे-पीले होते हैं 145-150 दिन में पकती है औसत पैदावार 9 से 10 कुवंटल प्रति एकड़ है |
8.    जी.एन.जी-663 :- इस किस्म के दाने छोटे व भूरे-पीले होते है यह किस्म झुलसा व उखेड़ा रोग के प्रति सहनशील है 150 से 155 दिन में पककर प्रति एकड़ 9 से 10 कुवंटल औसत उपज देती है |
9.    धारवाड़ प्रगति :- यह किस्म मध्य भारत के मैदानों  के लिए उपयुक्त है जो 114 से 124 दिन में पककर प्रति एकड़ 10-12 कुवंटल औसत पैदावार देती है सामन्यत: यह किस्म उखेड़ा और जड़गलन अवरोधी है |
10.  H.K-2 :- पुर्वोत्तर मैदानो के लिए उपयुक्त है उखेड़ा व जड़ गलन के प्रति अवरोधी किस्म है जो 130 दिन में पकती है तथा प्रति एकड़ 9 कुवंटल औसत उपज देती है |
11.  सूर्या :- यह जड़गलन अवरोधी तथा 135 से 150 दिन में पकने वाली किस्म है जो प्रति एकड़ 8 से 10 कुवंटल औसत उपज देती है |
12.  जी.एन.जी 1292 :- यह कम सीधे पौधों वाली उखेड़ा रोग रोधी तथा सूखी जड़गलन रोग के प्रति सहनशील है यह 147 दिन में पककर 10 कुवंटल प्रति एकड़ औसत पैदावार देती है |
 बारानी क्षेत्र में खरीफ की फसल काटने के तुरंत बाद मिटटी पलटने वाले हम आदि से खेत को गहरा जोत कर तथा पाटा लगाकर वर्षा की नमी को सरंक्षित करना बहुत आवश्यक है | सिंचित दशा में यदि जरूरी हो तो पलेवा अवश्य करना चाहिए | चना फसल  के लिए 22 सेंटीमीटर गहरी जुताई करना पैदावार को बढ़ाता है | 
देशी चने के लिए 15 से 18 किलोग्राम बीज प्रति एकड़ काफी है हरियाणा चना न.3 के मोटे दाने वाले बीज की मात्रा 30-32 किलोग्राम बीज प्रति एकड़ पर्याप्त है सुडोल दाने वाले काबली चने के बीज की 36 किलोग्राम मात्रा प्रति एकड़ है| हरियाणा चना न-1 की पछेती बुवाई में 20-22 किलोग्राम मात्रा प्रति एकड़ रखें | बीज व मिटटी जनित बीमारियों व दीमक से बचाव के लिए चने के बीज को उपचारित करना चाहिए | इसके लिए 100 किलोग्राम बीज पर 1.5  लीटर मोनोक्रोटोफास 36 एस.एल या क्लोरपाईरिफास 20ई.सी तथा 500 मिलीलीटर पानी के घोल को छिड़ककर सभी दानो पर अच्छी तरह लगायें |
         अब इस बीज को छाया में फरैरा करके उसके ऊपर 2.5 ग्राम बवैस्टीन या आधा ग्राम ट्राईकोडरमा प्रति किलोग्राम बीज की दर से अच्छी तरह लगा दें | इन दोनों उपचारों के बाद 2 कप पानी में 50-60 ग्राम गुड़ को घोलकर इस घोल को एक एकड़ के लिए जरूरी बीज पर लगा दें तथा फिर 1 पैकेट राईज़ोबीयम टीका तथा एक पैकेट पी.एस.बी. टीका को बीज पर छिड़ककर बीजो पर अच्छी तरह से हिला डुलाकर लगा दें और तब बीज की बुवाई करें | पर्याप्त नमी वाली भूमियों में चने की बुवाई 30 सेटीमीटर के फासले पर,हल्की व मध्यम भूमि में जहाँ नमी कम हो वहां 45 सेटीमीटर की दूरी पर सीडड्रिल या पोरा विधि से कतारों में करें | एसे क्षेत्रों में जहाँ बाजरा,ग्वार व ज्वार आदि फसलों के बाद चने की फसल ली जा रही है वहां नमी आमतौर पर हल्की से मध्यम दर्जे की होती है | ऐसी स्थिति में चने की बुवाई 45 सेटीमीटर की दूरी वाली लाइनों में करें |    
                  चने की बुवाई दोहरी पंक्ति में भी की जा सकती है दो पंक्तियों के बीच की दूरी 30 सेटीमीटर तथा दोहरी कतारों में आपसी दूरी 60 सेटीमीटर रखे इससे  निराई-गुड़ाई व अन्य कृषि क्रियाएं करने में सुविधा रहती है इस विधि  से बोई गयी फसल पैदावार भी ज्यादा देती है | चने की सिंचित तथा असिंचित दोनों ही स्थितियों में बोयी जाने वाली फसल के लिए प्रति एकड़ 12 किलोग्राम यूरिया,100 किलोग्राम सिंगल सुपर फास्फेट तथा 20 किलोग्राम म्यूरेट ऑफ़ पोटाश को आखरी जुताई पर या बुवाई के समय बीज से नीचे डालना चाहिए | सिंचित भूमि में उर्वरकों के साथ 10 किलोग्राम जिंक सल्फेट भी डालें | किसान भाइयों उचित तो यही होगा की आप अपने खेतों की मिटटी का परीक्षण करायें और परीक्षण रिपोर्ट के अनुसार ही उर्वरकों की मात्रा डालें | वैसे तो चने की बुवाई असिंचित क्षेत्रों में ही प्राय: की जाती है परन्तु सिंचाई करने से बहुत ही अच्छे परिणाम मिले हैं अत: जहाँ तक हो सके चने की फसल में फूल आने से पहले बुवाई के 45 से 60 दिन के बीच एक सिंचाई करें | यदि वर्षा न हो तथा मिटटी में पर्याप्त नमी भी न हो तो फसल में टाट (फलियाँ) बनते समय भी एक सिंचाई जरुर करें ताकि पकाव अच्छा हो सके |
निराई गुड़ाई :-  चने की अच्छी पैदावार लेने के लिए  पहली निराई गुड़ाई फसल बोने के 25-30 दिन तथा दूसरी 45 से 50 दिन पर अवश्य करें | लेकिन पछेती बोयी फसल में दूसरी निराई गुड़ाई बुवाई के 55-60 दिन में करके खरपतवारों को निकाल दें |
कीटों का प्रबन्धन :- दीमक :- क्योंकि चना मुख्यतया असिंचित व कम नमी वाले क्षेत्रों में उगाया जाता है इसलिए हल्की रेतीली तथा अर्ध नमी की अवस्था  में दीमक चने की बुवाई से लेकर कटाई तक खेत में सक्रिय रहती है इसकी रोकथाम के लिए खेत में पिछली फसल के अवशेष न रहने दें | कच्ची खाद न डालें तथा पहले बताया गया बीज उपचार अवश्य करें |
कटुआ सुंडी :- इस बहुभक्षी कीट की सुंडी उगते हुए पौधों को तने के बीच में अथवा बढ़ते हुए पौधों की शाखाओं को काटकर नुकसान करती है | इसका आक्रमण होने पर 80 मिलीलीटर फैनवेलरेट  20 ई.सी या 50 मिलीलीटर साइपरमैथरीन 25 ई.सी को 100 लीटर पानी में घोलकर प्रति एकड़ स्प्रे करें या 10 किलोग्राम फैनवेलरेट 0.4 प्रतिशत की प्रति एकड डस्टिंग करें |
फली छेदक सुंडी :- इस कीट की हरे या पीले रंग की सुंडी पत्तियों,कलियों व फलियों पर आक्रमण करती हैं तथा फलियों में बन रहें हरे दानों को खाकर नष्ट कर देती हैं | हर सुंडी लगभग 30-40 फलियाँ खा जाती है | इनकी रोकथाम के लिए 400 मिलीलीटर क्विनलफास 25 ई.सी या 400 ग्राम कार्बेरिल 50 W.P या 200 मिलीलीटर मोनोक्रोटोफास 36 S.L या 80 मिलीलीटर फैनवेलरेट 20 ई.सी या 125 मिलीलीटर  साइपरमैथरीन 10 ई.सी को 150 लीटर पानी में घोलकर प्रति एकड़  छिड़काव करें | जरूरत पड़ें तो दूसरा छिड़काव 15 दिन बाद करें | लाइट ट्रैप या फैरोमोनट्रैप  लगाकर भी इसकी जनन क्रिया को कम किया जा सकता है |
      फल छेदक सुंडी लगने पर 250 लार्बा समकत्त मात्रा एन.पी.वी. का छिड़काव करके इस कीट का जैविक नियंत्रण सम्भव है |
बीमारियाँ :- उखेड़ा रोग :- पश्चिमी क्षेत्र में उखेड़ा रोग की समस्या अधिक होती है | जो बुवाई के 3 से 6 सप्ताह बाद दिखाई देती है | इसके लगने पर पत्तियां मुरझाकर लुढ़क जाती है परन्तु उनमें हरापन बना रहता है तने को लम्बाई में चाकू से काटने पर अन्दर से रस वाहिनी भूरी-काली तथा भद्दी सी नजर आती है | उखेड़ा रोग से बचाव के लिए मिटटी में नमी बनायें रखें तथा 10 अक्टूबर से पहले बुवाई न करें तथा उखेड़ा रोग रोधी किस्में जैसे हरियाणा चना न-1, 3 व 5, हरियाणा काबली न-1 व हरियाणा काबली न.2 बोना चाहिए | फफूंद नाशी से बीजोपचार भी करें |
तना गलन :- पत्तियां बदरंग हुए बिना ही गिर जाती है | भूमि की सतह पर सफ़ेद फफूंद तने को चारों ओर से घेर लेता है | बाद में सफ़ेद पिंड से दिखाई पड़ते हैं | किन्तु रस वाहिनी में भद्दापन नजर नहीं आता | फसल की अधिक बढ़वार तथा अधिक वर्षा होने की अवस्था ,में इस रोग की संभावना बढ़ जाती है |
जड़गलन रोग :- यह रोग दो प्रकार का होता है पहला गीला जड़गलन रोग जो अधिक नमी वाली जमीन में पाया जाता है दूसरा शुष्क जड़गलन रोग है | जो चने में फूल व फलियाँ बनते समय लगता है इनका प्रकोप अंकुरण अवस्था में या फिर सिंचित क्षेत्रों में फसल बड़ी होने पर होता है | रोगी पौधों के तने व पत्ते हल्के पीले रंग के हो जाते हैं \ मुख्य जड़ से नीचे का भाग गल जाने के कारण जमीन में ही रह जाता है  |
विषाणु रोग :- रोगी पौधे बौने रह जाते हैं उनका रंग संतरी या भूरा  हो जाता है यह रोग देशी चना में अधिक लगता है भूमि की नमी के उचित संरक्षण तथा 10 अक्टूबर के बाद बुवाई करके इस रोग से बचा जा सकता है |
एसकोकाइटा झुलसा रोग :- आरम्भ में हल्के भूरे रंग के धब्बे पत्तों तनों व फलियों  पर दिखाई देते है | हरी फलियों पर ये धब्बे छोटी-छोटी गोलाकार आकृतियों में बादल जाते हैं इसकी परिधि में हरे-भूरे रंग के दायरे दिखने लगते हैं तने व डंठलों पर भूरे लम्बे धब्बे बन जाते हैं | जिन पर फफूंद की बीजाणु-धारियां चूड़ीदार रेखाओं में काले बिंदु के समान दिखती है रोग ग्रस्त भाग जकड जाता है | बीमारी फैलने पर पूरे खेत को ही चपेट में ले लेती है |
आल्टर नेरिया झुलसा रोग:- पत्तों पर बहुत छोटे,गोल भूरे रंग के धब्बे पड़ जाते है जो बढ़ने पर हल्के पीले हो जाते हैं तथा प्रभावित पौधे  गिरकर सूख जाते हैं | तने के परिगलित स्थान पर बीजाणु की रचना होती है | फलियों पर भी इस रोग का बुरा प्रभाव पड़ता है |
ग्रेमोल्ड रोग :- पत्तियां किनारों तथा चोटी से भूरे रंग में बदलने लगती हैं | ऊपर की शाखा झुक जाती है | रोग ग्रस्त टहनियां तथा तने बाद में सड़ने लगते है |
         फफूंद जनित  बीमारियों से बचाव के लिए इन बीमारियों से पहले से ही ग्रसित खेतों में चना न बोयें | फफूंद रोग रोधी किस्में जैसे सी-235 व हरियाणा चना न.1 की बुवाई करें | पहले बताया गया बीजोपचार जरुर करें तथा बीमारी ग्रस्त पौधों व उनके अवशेषों को नष्ट कर दें |

     

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